स्त्री विमर्श: अवधारणा और आन्दोलन

स्त्री विमर्श एक तरह का साहित्यिक आंदोलन है, जिसके केन्द्र में समानता का अधिकार, स्त्री अस्मिता, अस्तित्व, स्वतंत्रता और मुक्ति का सवाल है। इन सभी को संगठित रूप में रखकर स्त्री विमर्श की शुरुआत हुई है।  हिन्दी साहित्य में अस्मितामूलक विमर्शों के अंतर्गत स्त्री विमर्श मुख्य धारा का विमर्श रहा है। इसमें लिंग (जेंडर) को मुख्य आधार बनाया गया है। अंग्रेजी में इसे फेमिनिज्म कहा जाता है।

स्त्री विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है जिसमें पूरे विश्व की स्त्रियों का संघर्ष अपने पितृसत्तामक समाज के विरोध में देखने को मिलता है। पश्चिमी और भारतीय स्त्री आंदोलन और स्त्री विमर्श का इतिहास बहुत पुराना और लम्बा रहा है।

स्त्री विमर्श एक ऐसा विमर्श है जो जाति, धर्म, वर्ग, वंश, प्रांत और देश आदि से अलग हटकर है जहाँ स्त्री अपने ऊपर हो रहे अन्याय, अत्याचार, शोषण-उत्पीड़न और उपेक्षा आदि का विरोध करती है। स्त्री विमर्श को पश्चिम से आई एक अवधारणा के रूप में देखा और विचार किया जाता है। विशेष रूप से यह विकासशील देशों की सभ्यता के परिणामस्वरूप स्त्रियों में आई जागृति से उत्पन्न हुआ है।

स्त्री विमर्श की अवधारणा

सर्वप्रथम यह आंदोलन ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रारंभ हुआ। 18वीं सदी में यह आंदोलन मानवतावाद और औद्योगिक क्रांति के समय से हुई थी। स्त्रियों को पुरुष से बौद्धिक और शारीरिक स्तर पर कमतर समझा जाता रहा है। समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से धर्मशास्त्रों और कानून में स्त्रियों की पराधीनता और दासता का उल्लेख मिलता है। स्त्रियाँ अपने नाम से संपत्ति नहीं रख सकती थीं और स्त्रियों को संपत्ति का भी अधिकार नहीं था। स्त्रियां किसी भी चीज पर अपना अधिकार नहीं जमा सकती थीं। यहाँ तक कि उसे अपने ऊपर और अपने बच्चों पर भी अधिकार जताने का हक नहीं था। उसे अपने निर्णय लेने का भी अधिकार नहीं था। इन सब अधिकारों को प्राप्त करने के लिए महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों के साथ स्त्रियों ने आवाज उठाई और मुक्ति के लिए आंदोलन भी किए।

प्रत्येक देश और प्रत्येक युग में स्त्रियों की स्थिति एक बराबर नहीं थी न ही स्त्रियों की स्थिति प्रत्येक वर्ग में एक समान थी। प्रत्येक देश, राज्य, संस्कृति और वहाँ की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार स्त्रियों पर पुरुष सत्ता हावी रही।

 जब स्त्रियों ने अपनी समस्याओं पर विचार किया और लिंग के आधार पर सोचना प्रारंभ किया तब उन्हें अपनी दासता और हो रहे अन्याय का ज्ञान हुआ तब जा कर उन्होंने आवाज उठाई और आंदोलन किए।

 इसीलिए कहा जाता है कि स्त्री विमर्श स्त्रियों के ऊपर सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक रूप से मानसिक और शारीरिक दबाव डालने वाली पारंपरिक रूढ़ियों और मान्यताओं के विरोध में उभरा एक वैचारिक आंदोलन है।

स्त्री विमर्श का अर्थ और स्वरूप

स्त्री विमर्श दो शब्दों से मिलकर बना है – ‘स्त्री’ और ‘विमर्श’। स्त्री का अर्थ महिला, नारी, औरत लड़की मतलब लिंग के आधार पर स्त्री होना। विमर्श का अर्थ होता है बहस, संवाद, वार्तालाप या विचारों का आदान-प्रदान। अतः स्त्रियों को लेकर होने वाले बहस को हम स्त्री विमर्श कहते हैं।

इन विमर्शों के माध्यम से स्त्री विमर्श का अर्थ स्त्री की परंपरागत छवि या पहचान से एक नई स्त्री छवि या पहचान का निर्माण करना है। स्त्री विमर्श एक प्रकार से रूढ़ परंपराओं, मान्यताओं के प्रति असंतोष और उससे मुक्ति का स्वर है। पितृसतात्मक समाज के दोहरे नैतिक मापदंडों मूल्यों व अंतर्विरोधों को समझने व पहचानने की गहरी अंतर्दृष्टि है।

स्त्री विमर्श की परिभाषा एवं स्त्री संबंधी विचार

सामान्यतः लेखिकाएँ स्वयं को स्त्रीवादी कहलाने से बचना चाहती हैं। इसी संदर्भ में नासिरा शर्मा कहती हैं- “न तो मैं स्त्रीवादी हूँ और न स्त्रियों के लिए लिखती हूँ।” क्योंकि वह मानती हैं कि “स्त्री की समस्या सिर्फ स्त्री की ही नहीं पूरी समाज व्यवस्था की समस्या है। इसलिए मैं मानव मात्र के लिए लिखती हूँ।”

वहीं स्त्री विमर्श के संबंध में मैत्रेयी पुष्पा का कहना है कि- “नारीवाद ही स्त्री विमर्श है । नारी की यथार्थ स्थिति के बारे में चर्चा करना ही स्त्री विमर्श है।” (एक साक्षात्कार से)

     आगे मैत्रेयी पुष्पा का कहना है- “मनुष्य की मूलरूप से प्रवृत्ति होनी चाहिए कि स्त्री की नैसर्गिक प्रवृत्तियों और पुरुष की स्वाभाविक वृत्तियों को एक समान रूप से देखना, दोनों की जरूरतों को समान महत्व देना तथा दोनों की समान रूप से भागीदारी होना स्त्री विमर्श का लक्ष्य है ।“

प्रभा खेतान के अनुसार – “नारीवाद न मार्क्सवाद है और न पूँजीवाद। स्त्री हर जगह है। हर वाद में है, फैलाव में हैं, मगर संस्कृति के विस्तृत फलक पर आज भी वह वस्तुकरण की इस पारंपरिक प्रक्रिया को पुरुष दृष्टि से नहीं बल्कि स्त्री दृष्टि से देखने और समझने की जरूरत है।” (हंस, अक्टूबर 1996, पृष्ठ 76)

स्त्री विमर्श के उद्देश्य

सीमोन द बोउवार कहा है- “स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि स्त्री बनाई जाती है। इसी आधार पर स्त्री को स्त्री और पुरुष को पुरुष जैसे सामाजिक और व्यवहारिक शिक्षा दी जाती है।

इस वाक्य को यदि ध्यान में रखें तो स्त्री विमर्श के निम्नलिखित उद्देश्य होते हैं:

  • स्त्री को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करना
  • शोषण और उत्पीड़न के विरोध में संघर्ष करना,
  • स्त्री संबंधी विभिन्न समस्याओं पर विचार विमर्श करना,
  • स्त्री को अपने अस्तित्व और अस्मिता की पहचान करवाना,
  • मानसिक रूप से सुदृढ़ बनाना,
  • मानसिक और शारीरिक शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाना,
  • साहित्य, मीडिया और सिनेमा में स्त्री संबंधी मुद्दों से जागृति लाना,
  • स्त्री को अपने भीतर सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक रूप से मानसिक परिवर्तन लाना ।

पाश्चात्य संदर्भ

देशों में हुए स्त्रीवाद, स्त्री विमर्श और स्त्री मुक्ति आंदोलन को निम्नलिखित चार चरणों में देख सकते हैं।

1 पहला चरण

स्त्रीवादी आंदोलन अमेरिका से यूरोप और यूरोप से पूरे विश्व के अलग-अलग भागों तक पहुँचने लगा। वहाँ की महिलाओं ने अपने मौलिक अधिकार और लिंग के आधार पर समानता और मताधिकार की माँग को लेकर आवाज उठाई। इसके बाद पूरे विश्व में महिलाओं ने अपने ऊपर हो रहे भेदभाव और शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद की। इन आंदोलनों के साथ-साथ महिलाओं ने उच्च शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार,विवाहित महिला की सम्पत्ति का अधिकार, प्रजनन नियंत्रण और समान वैवाहिक कानून की मांग की । महिला के संपत्ति के अधिकार को लेकर पहले कोई कानून व्यवस्था नहीं थी ।

     ब्रिटेन में विवाह के बाद महिला की संपत्ति पर पुरुष का अधिकार हो जाता था और फिर स्त्री कुछ नहीं कर सकती थी। इसीलिए ब्रिटेन में महिला अधिकार को लेकर बहस तेज हुई और संपत्ति की माँग को लेकर आवाज उठने लगी। सन् 1872 में एक कानून बना, जिसके अनुसार पत्नी अपनी संपत्ति अलग रख सकती थी और पति उस संपत्ति का उपयोग बिना पत्नी की इच्छा के नहीं कर सकता था।

     अमेरिका के संविधान में 19वें संशोधन के तहत स्त्रियों के लिए सबसे बड़ी सफलता मताधिकार प्राप्त होना था। इस संशोधन के अनुसार अमेरिकी संविधान ने सन् 1920 में महिलाओं हेतु ‘राइट टू वोट कुड नॉट बी डिनाइड ऑन द बेसिस ऑफ सेक्स’ कहा था। अर्थात् ‘लिंग के आधार पर वोट के अधिकार को नकारा नहीं जा सकता था।’

2 दूसरा चरण

स्त्रीवादी आंदोलन का दूसरा चरण 1955 के दशक के मध्य में हुए अफ्रीकी -अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (सिविल राइट मूवमेंट) से प्रभावित था। दूसरे चरण में महिलाओं के प्रजनन अधिकार, घरेलू हिंसा, स्वतंत्रता, कार्यस्थल पर सुरक्षा जैसे मुद्दे मुख्य रूप उठाए गए थे।

सन् 1960 से 1980 के बीच लगातार इस नारीवादी आंदोलन का दूसरा चरण जारी था ।  जिसे अंग्रेजी में ‘सेकेण्ड वेव ऑफ फेमिनिज्म’ कहा गया ।

3 तीसरा चरण

स्त्रीवादी आंदोलन का तीसरा चरण सन् 1990 से अमेरिका में प्रारंभ हुआ। इस दौर में स्त्रीवादी होने के अर्थ को तलाशा जाने लगा और इसका प्रारंभ 1990 में ओलम्पिया के रायट गर्ल’ (Riot girl) नाम के एक स्त्रीवादी उपसंस्कृति समूह ( Feminist Punk Subculture) के उद्भव से माना जाता है। देखा जाए तो स्त्रियों को घर और बाहर दोनों जगहों पर हमेशा से दोयम दर्जे का माना जाता रहा है। उन्हें कभी अपने जुल्मों के बारे में बोलने का और अपने वजूद की अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने का अवसर ही नहीं दिया गया। इसी वजह से स्त्रियों द्वारा एक प्रचलित संस्कृति के समक्ष एक उपसंस्कृति को विकसित किया गया, जहाँ स्त्रियाँ अपनी बातें, समस्याएँ, शोषण, मारपीट, पितृसत्ता द्वारा उत्पीड़न, बलात्कार, भेदभाव और स्त्री सशक्तीकरण आदि पर अपनी बात रख सकती थीं।

4 चौथा चरण

स्त्रीवाद का चौथा चरण सन् 2010 के बाद से माना जा सकता है। आज विश्व में जो बदलाव आ रहा है उसमें सभी चीजें इंटरनेट की तीव्र गति के माध्यम से अधिक खुली हुई हैं। आज भी स्त्री विमर्श में विमर्श, बहस, संवाद और चर्चा जारी है, क्योंकि जो लड़ाई स्त्रियाँ इतने वर्षों से लड़ती आ रही हैं उसमें अभी भी कुछ न कुछ मुद्दे बाकी हैं। इंटरनेट और मोबाइल के विभिन्न संस्करणों जैसे 2G, 3G, 4G और 5G, की इस दुनिया ने पूरे संसार को एक साथ जोड़ दिया है। इससे स्त्रियों के भीतर एक नया आत्मविश्वास, साहस और जागृति भी पैदा हुई है, वहीं आज नये-नये तरह से स्त्रियों के साथ शोषण भी हो रहे हैं। सोशल मीडिया पर स्त्रियाँ अपनी बात खुलकर लिख रही हैं. बोल रही हैं, अपने जीवन से जुड़ी तस्वीरें पोस्ट कर रही हैं इसी वजह से आज साइबर क्राइम अधिक बढ़ने लगा है और इसकी शिकार महिलाएँ अधिक हो रही हैं। इस प्रकार के क्राइम के पीछे भी पुरुषों का ही हाथ है जैसे प्रेम द्वारा धोखे का शिकार बनाना और शारीरिक रूप से ऑनलाइन शोषण करना मॉडलिंग या प्रेम के नाम पर फोटो मंगवाना और फिर ब्लैकमेल करना जैसी समस्याओं का शिकार भी महिलाओं को होना पड़ रहा है। जरूरत इस बात की है कि महिलाएं एकत्र हों और अपने साथ हो रहे किसी भी प्रकार के शोषण, बलात्कार, ब्लैकमेल, धोखा, पैसों की ठगी आदि के प्रतिने आवाज उठाएँ क्योंकि वर्षों से चली आ रही पितृसत्तावादी मानसिकता के खिलाफ इस लड़ाई को समाप्त करना ही होगा।

भारतीय संदर्भ

स्त्री संघर्ष का इतिहास वर्षों पुराना रहा है जिसे समझने के लिए प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के भारतीय समाज में स्त्री के इतिहास को जानना और समझना आवश्यक है। इसे हम निम्नलिखित पाँच कालों में देख सकते हैं।

प्राचीन काल

मध्यकाल

आधुनिक काल का प्रथम दौर

 आधुनिक काल का प्रथम दौर नवजागरण काल

 आधुनिक काल

1 प्राचीन काल

प्राचीन काल से पूर्व स्त्री का इतिहास पाषाण युग से प्रारंभ होते हुए देखा जा सकता है। पाषाण युग में मनुष्य आदिमानव की तरह जीवन यापन करता था । पाषाण युग के बाद में सिंधु घाटी सभ्यता आई और इस युग में स्त्री का अपना महत्त्व था, क्योंकि उस समय मातृप्रधान कुटुंब व्यवस्था चलती थी। वंश को माँ के नाम से चलाया जाता था।

प्राचीन भारत में मौर्य साम्राज्य मगध साम्राज्य, महाजन दशक, कुषाण आदि का समय रहा है। वैदिक और उत्तर वैदिक युग में स्त्री जीवन का नया स्वरूप दिखाई देने लगा। उस समय वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों और आरण्यकों की रचना हुई। समाजिक व्यवस्था आर्यों द्वारा प्रारंभ की गई थी, उसका मूल ढाँचा पितृसत्तात्मक था। इस दौर में पितृसत्तात्मक परिवारों में प्रचलित परंपरा के अनुसार पुरुष ही परिवार का मुखिया बन गया।

     स्त्री की पराधीनता का प्रारंभ ‘मनुस्मृति के कारण हुआ है। ‘मनुस्मृति और अन्य धार्मिक ग्रंथों में स्त्रियों के लिए कई नियम बना दिए गये, जैसे अविवाहित स्त्री का कुंवारापन, विवाहित स्त्री के शील की शुद्धता और स्त्री को लोभी और लालची कहने की मानसिकता आदि । मनुस्मृति में विवाह का धार्मिक महत्त्व इस तरह रखा गया है कि स्त्री को एक आदर्श के रूप में बताया जाता है। इस आदर्श के तहत पति को परमेश्वर की उपाधि देकर पत्नी को पति की पूजा करने का पाठ पढ़ाया जाता है। विधवाओं के लिए सती प्रथा का नियम बना दिया गया है। एक तरह से स्त्रियों को पुरुषों पर पूरी तरह से निर्भर बना दिया गया है। पति की मृत्यु के बाद पत्नी का जीवन निरर्थक मानने वाले समाज के विचारकों ने अपनी मान्यताओं और रिवाजों आदि को अपनी सुविधानुसार परिवर्तित किया है। जिस समाज में सतीत्व को इतना सम्मान दिया जाता था वहाँ पुनर्विवाह पर विचार करने का सवाल ही नहीं उठता है। विधवाओं के लिए जो नियम बने वे अति कठोर और संवेदनहीन थे।

2 मध्य काल

भारत के इतिहास में मुस्लिम शासकों के आगमन और शासक के रूप में स्थापित होने का काल मध्यकाल के नाम से जाना जाता है। इस दौर में भारतीय स्त्रियों की स्थिति बिगड़ती चली गई। इस मध्ययुग में प्रगतिमूलक विचारों का भी अभ्युदय हुआ था जिसमें भक्ति संप्रदाय ने स्त्रियों और दलितों के भीतर एक नई चेतना जगाई। भक्तों और संतों ने सीख दी कि स्त्री और पुरुष दोनों ही ईश्वर के सामने समान हैं। स्त्रियों के संदर्भ में विवाह आदि को लेकर जो प्रथाएँ आरंभ हुई थी, वह स्त्री विरोधी रही हैं। युद्ध के बाद औरतों को बंदी बनाकर उनके साथ जबरदस्ती विवाह करने का प्रचलन भी था राजपूतों में तो मुस्लिम शासकों के आतंक से बचने के लिए स्त्रियों द्वारा जौहर और राती हो जाने की प्रथा का प्रचलन शुरू हो गया था। मुस्लिम समाज में पर्दा पद्धति भी थी जो एक सम्मान सूचक पद्धति बनती चली गई। लड़कियों का विवाह बहुत कम उम्र में करने का प्रचलन भी इसी दौर से प्रारंभ हुआ, जिरासे बाल विवाह की कुप्रथा शुरू हुई। इन सभी परिस्थितियों के मद्देनजर हिन्दुओं और मुसलमानों में कन्या के जन्म को एक अभिशाप की तरह माना जाने लगा और परिणामस्वरूप भ्रूण हत्याएँ बढ़ने लगी। बहुविवाह की प्रथा को भी बढ़ावा दिया गया। विधवाओं पर अनेक पाबंदियाँ लगायी जाने लगीं। विधवाओं की स्थितियाँ इतनी दयनीय हो गई कि जिंदा रहने के बजाय वे सती हो जाना पसंद करने लगीं। स्त्रियों के लिए शिक्षा प्राप्त करना असंभव बना दिया गया, जबकि उच्चवर्णीय स्त्रियाँ कुछ हद तक पड़ती थीं लेकिन वह भी मानसिक शांति और धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने हेतु यदि इस काल में स्त्रियों की स्थिति दिन-प्रतिदिन गिरती चली गई। सती प्रथा, पर्दा प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, वेश्यावृत्ति, विधवा विवाह पर पाबंदी, अशिक्षा, और बहुविवाह जैसी प्रथाएँ और कुरीतियाँ इसी काल से प्रारंभ हुई।

आधुनिक काल का प्रारंभिक दौर

उन्नीसवीं सदी के आरंभ में भारतीय समाज में स्त्रियों को सती प्रथा, बाल विवाह, बहुविवाह जैसी कई कुरीतियों के कारण सब कुछ सहन करना पड़ता था। धर्म और परंपराओं के आधार पर अन्याय और क्रूरता के कारण स्त्रियों पर हो रहे निरंतर शोषण को देखते हुए, राजा राममोहन राय ने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए सबसे पहले आवाज उठाई। उन्होंने राती प्रथा का विरोध किया और बहुविवाह प्रथा पर प्रहार किया। उन्होंने स्त्रियों की स्थिति को मजबूत करने के लिए संपत्ति के अधिकारों पर भी जोर देते हुए आवाज उठाई। राजा राममोहन राय ने सन् 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की और उन्होंने सती प्रथा के विरुद्ध राममोहन राय ने सन् 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की और उन्होंने सती प्रथा के विरुद्ध आंदोलन भी किया। उन्हीं के प्रयासों से 1829 में सती प्रथा को समाप्त करने के लिए सती प्रथा निषेध अधिनियम बनाया गया। ब्रह्म समाज अंतर्जातीय विवाह का समर्थन भी करता था। 1832 में ब्रह्म समाज की स्थापना के बाद कई संस्थाएँ भारत में महिलाओं की उन्नति के लिए स्थापित होती चली गई। सन् 1848 में गुजरात वर्नाक्यूलर सोसाइटी की स्थापना हुई। ब्रह्म समाज संगठन के द्वारा महिलाओं के लिए बोधिनी पत्रिका की भी शुरुआत की गई थी। इस संगठन के प्रयासों से 1872 में नागरिक विवाह कानून पारित किया गया जिससे अंतर्जातीय विवाह एवं तलाक को कानूनी अधिकार दिया गया। शादी के लिए स्वीकृत आयु महिला एवं पुरुष के लिए क्रमशः 14 और 18 वर्ष निश्चित की गई।

नवजागरण युग और स्त्रियों के लिए सुधार काल

आधुनिक भारत में महर्षि डॉ. घोड़ो केशव कर्वे ने विधवाओं के जरूरतमंद बच्चों की मदद की और विधवाओं के पुनर्विवाह को प्रोत्साहन देने के लिए विधवा विवाहोत्तेजक मंडली की स्थापना भी की। सन् 1896 में उन्होंने एक हिंदू विधवा होम एसोसिएशन की भी स्थापना की। सन् 1907 में कन्या पाठशाला और महिला महाविद्यालय की शुरुआत की, जो आगे चलकर पहला महिला विद्यापीठ भी बना।

स्वामी विवेकानंद ने सन 1897 में रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। स्वामी जी ने विशेष रूप से भारत में महिलाओं की स्थिति में आई गिरावट को सुधारने का कार्य किया पर्दा प्रथा तथा बहु पत्नीत्व प्रथा ने मुश्लिम महिलाओं को पतन के गर्त में धकेल दिया था। मुस्लिम समाज सुधारकों में सबसे पहला नाम सर सैयद अहमद खान का आता है। उन्होंने स्त्रियों को शिक्षित करने पर बल दिया। इस प्रकार नवजागरण काल में स्त्रियों के स्त्रियों को शिक्षित करने पर बल दिया। इस प्रकार नवजागरण काल में स्त्रियों के लिए अनेकों सुधार कार्य हुए।

आधुनिक काल

1857 के संघर्ष के साथ ही भारत में मध्यकालीन दौर का भी अंत हुआ और नए युग की शुरुआत हुई जिसे आधुनिक काल कहा गया मुगल साम्राज्य की लड़ाई ब्रिटिश सेना के साथ हुई। मुगलों के पास उस समय केवल 7 रियासतें थी और ब्रिटिशों के पास भारत की 21 रियासतें थीं और देश पूरी तरह से गुलाम होता जा रहा था तब मेरठ से 1857 की क्रांति हुई थी। उसी दौर में झांसी को बचाने के लिए रानी लक्ष्मी बाई (1828 1858) ने अपने सैनिकों के साथ युद्ध किया। 1857 की क्रांति में अनेक वीरांगनाएं शामिल रहीं, जिनका उल्लेख इतिहास में बहुत कम मिलता है। इन वीरांगनाओं में प्रमुख रूप से अहिल्या बाई होल्कर, रानी चेनम्मा, उम्दा देवी, रजिया सुल्तान रानी झलकारी बाई, रहीमी, जमीला खान, मन कौर, राज कौर, शोभना देवी, आशा देवी आदि हैं। इन स्त्रियों ने युद्ध में अपने प्राणों की कुर्बानी दे दी। स्त्रियों को पहले योद्धाओं का दर्जा नहीं दिया जाता था, इसी कारण इनका नाम इतिहास में बहुत कम दिखाई देता है।

स्त्री मुक्ति आंदोलन

स्त्री मुक्ति आदोलन का प्रारंभ पश्चिम से माना जाता है। सदियों से पूरे विश्व में स्त्रियों पर जो शोषण होता रहा है उसी के खिलाफ यह आंदोलन अलग-अलग जगहों पर अपनी-अपनी समस्याओं को लेकर होता आया है उसका इतिहास भी उतना ही पुराना है।

पाश्चात्य संदर्भ में मुक्ति आंदोलन

फ्रांसीसी क्रांति के समय आजादी, समानता और भातृत्व का व्यवहार बिना किसी लिंग भेद के लागू करने के लिए महिला रिपब्लिकन क्लबों ने माँग की थी परन्तु उस समय नेपोलियन की संहिता आ जाने के कारण यह माँग शांत पड़ गई। उत्तरी अमेरिका के अबीजेल ऐडम्स (Abijail Adams) और मेरी ऑरटीस वारेन ने जार्ज वाशिंगटन और टामस जैफरसन पर दबाव डाला था कि नारी मुक्ति के मामले को संविधान में शामिल किया जाए। इसके बाद नारीवादी आंदोलन सन् 1848 में प्रारंभ हुआ।

     सन् 1949 में सिमोन द बोउचार की पुस्तक द सेकंड सैक्स के प्रकाशन ने स्त्री मुक्ति के सवाल को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक मानदंडों से निकालकर यौन मुक्ति के प्रांगण में ला खड़ा किया। इसके बाद से स्त्री विमर्श के नाम पर यौन विमर्श प्रमुखता से सामने आने लगी।

भारतीय संदर्भ में मुक्ति आंदोलन

उन्नीसवीं सदी के भारत में ताराबाई शिंदे का नाम विशेष महत्त्व रखता है। इन्होंने सन् 1882 में ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ नामक किताब की रचना की। इसमें पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तमाम शोषणात्मक कार्यों की आलोचना की गई है जो पुरुष वर्ग स्त्रियों के साथ अपने जीवन में करता है। यह किताब स्त्रीवादी विचारधारा का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज भी है।

प्रगतिशील महिला आंदोलन ने सन् 1929 में कुछ राष्ट्रीय नेताओं के सहयोग से शारदा एक्ट और बाल विवाह नियंत्रण पास करवाया और बाल विवाह के विरुद्ध कानून पास किए गए। महिला मुस्लिम पर्सनल लॉ विनियोग अधिनियम सन् 1927 तथा मुस्लिम विवाह सन् 1929 आदि अन्य कानून भी पास किए गए।

भारत में सन् 1915 से 1947 तक का समय स्त्रियों के लिए जागृति भरा रहा है राष्ट्रवाद को समझा और वे स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई में सम्मिलित हुई। महात्मा गाधीजी भारत में सन् 1915 से 1947 तक का समय स्त्रियों के लिए जागृति भरा रहा है। स्त्रियों ने में राष्ट्रवाद को समझा और वे स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई में सम्मिलित हुई। महात्मा गांधीजी के नेतृत्व में ऑल इंडिया वूमेन कांफ्रेंस, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी थी। इस आंदोलन में महिलाओं ने घर से बाहर निकलकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाया और अपनी महत्ता को सिद्ध किया।

बाबा साहेब आंबेडकर का स्त्री मुक्ति के संदर्भ में विशेष योगदान रहा। उन्होंने दलित और स्त्री वर्ग के उद्धार के लिए ही नहीं बल्कि पूरे देश के उत्थान और उन्नति के लिए सार्थक कार्य किये। उन्होंने स्त्री मुक्ति के संदर्भ में अनेक भाषण दिए। 28 जुलाई 1928 को मुम्बई विधान परिषद में डॉ. आंबेडकर ने मील, फैक्टरी, कारखाने तथा अन्य संस्थाओं में मजदूर महिलाओं को प्रसूति अवकाश की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए अधिनियम पास करवाने के प्रयास किये।

बाबा साहेब आंबेडकर ने जनवरी 1928 में मुंबई में महिला मंडल की स्थापना भी की थी। डॉ. आम्बेडकर की पत्नी रमाबाई आम्बेडकर उसकी अध्यक्ष

सन् 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में हजारों की संख्या में महिलाओं ने भाग लिया।

चिपको आंदोलन में ग्रामीण महिलाओं के लिए अपने पर्यावरण को बचाना, अपनी आजीविका को बचाने जैसा था, जिसमें प्राथमिक भोजन, ईंधन, पानी, मरुस्थलीकरण इत्यादि महिलाओं के विशेष हित में शामिल थे।

     नर्मदा बचाओ आंदोलन भी सन् 1985 में महिलाओं द्वारा चलाया गया आंदोलन था। यह आंदोलन मेधा पाटेकर ने भारत में गुजरात की नर्मदा नदी के किनारे सरदार सरोवर बांध के विरुद्ध जनजातीय लोगों, आदिवासियों, किसानों, पर्यावरणवेत्ताओं और मानव अधिकार के सक्रिय कार्यकर्ताओं की सहायता से चलाया था।

अतः स्वतंत्र भारत में सन् 1960 से नारी मुक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई और तभी से स्त्री की स्वतंत्रता और मुक्ति पर विचार करते हुए तीव्र गति से आह्वान किया जाने लगा।

स्त्री विमर्श : समकालीन हिंदी साहित्य

समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में लेखिकाओं ने अनुभवों और आस-पास की परिस्थितियों को केन्द्र में रखकर प्रत्येक वर्ग ( निम्न-मध्य-उच्च वर्ग), समुदाय, ब्राह्मण-क्षत्रिय, पूंजीपति वर्ग, अमीर-गरीब, गोरे काले रंग, ग्रामीण शहरी महानगरी पाश्चात्य जीवन शैली, दलित-आदिवासी, अनपढ़-शिक्षित, नौकरीपेशा गृहिणी, विवाह की समस्या, कुंवारी माँ की समस्या विधवाओं की समस्या, अनमेल विवाह, तलाक, विवाह-प्रेम, विवाहेतर संबंध, परंपरा-आधुनिकता, दो पीढ़ियों का द्वंद्व आदि समस्याओं और विडंबनाओं को अपने कथा साहित्य का विषय बनाया है।

     हिन्दी साहित्य में उपन्यास विधा के क्षेत्र में लेखिकाओं द्वारा अधिक स्त्री विमर्श देखने को मिलता है। स्त्री विमर्श से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण लेखिकाओं के उपन्यास इस प्रकार है कृष्णा सोबती (मित्रो मरजानी, ऐ लड़की, सूरजमुखी अंधेरे के, दिलो दानिश) प्रभा खेतान (छिन्नमस्ता, पीली आंधी, आओ पेपे घर चलें), मैत्रेयी पुष्पा (अल्मा कबूतरी, मृदुला गर्ग( चित्तकोबरा, कठगुलाब, अनित्य) चित्रा मुदगल (आवां) अनामिका (दस द्वारे का पिंजरा, तिनका तिनके पास), मंजुल भगत (अनारो) गीतांजलि श्री (तिरोहित, खाली जगह, माई ) ममता कालिया (बेघर, एक पत्नी के नोट्स, नरक दर नरक) आदि अनेक उपन्यास हैं।

     समकालीन हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श से संबंधित आत्मकथाओं में प्रमुख लेखिकाओं में कुसुम अंसल (जो कहा नहीं गया), मैत्रेयी पुष्पा (कस्तूरी कुंडल बसै, गुड़िया भीतर गुड़िया), रमणिका गुप्ता (हादसे), प्रभा खेतान (अन्या से अनन्या ) चंद्र किरण सौनरेक्सा (पिंजरे की मैना), कौशल्या बैसंत्री (दोहरा अभिशाप) आदि प्रमुख हैं। इसी तरह से कविता और कहानी के क्षेत्र में अनेक स्त्री विमर्श से संबंधित रचनाएँ उपलब्ध हैं।

निष्कर्ष

स्त्री विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है जिसमें पूरे विश्व की स्त्रियों का संघर्ष अपने पितृसत्तामक समाज के विरोध में देखने को मिलता है। पश्चिमी और भारतीय स्त्री आंदोलन और स्त्री विमर्श का इतिहास बहुत पुराना और लम्बा रहा है।

लिंग के आधार पर पितृसत्तात्मक समाज में जहाँ सारे नियम, कानून, वर्चस्व पुरुषों के हैं, वहाँ स्त्री का अपना कुछ भी नहीं है। स्त्री एक ऐसी प्राणी बन चुकी है जो इस पुरुषवादी समाज की कठपुतली और विवशता के साथ निरीह प्राणी के समान जीवन व्यतीत कर रही है।

स्त्री के स्वभाव, उसके मन और उसकी संवेदनाओं को समझने के लिए स्त्री विमर्श एक महत्त्वपूर्ण दृष्टि है। स्त्री निमर्श कोई संस्कार नहीं है और न ही कोई विचारधारा है, बल्कि इस बदलते हुए समाज में स्त्री के पारंपरिक मानदंडों को तोड़ने की एक पहल है जिससे स्त्री को समानता का अधिकार, सम्मान, अस्तित्व और स्वतंत्रता प्राप्त हो सके। इसके लिए पुरुषों की मानसिकता में बदलाव लाने की आवश्यकता है।

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